कमरे की खिड़की से निकल कर
मेरी ऑंखें रह रह के
आसमान की तरफ चली जाती हैं
बादलो से ढका सलेटी सा आसमान
बोझिल तो है
लेकिन बरसा नहीं
एक आवाज़ कहती है -
बरस भी गया तो क्या?
क्या हो जाएगा बरस जाने से ?
कितनी बारिशें तो बीत गयी
हर बारिश में कई बार चौखट पर से हाथ पसारे
कुछ बूँदें हथेली पे महसूस की,
जैसे कोई नया अहसास पाने
की तमन्ना हो
जैसे बूंदों में डूब जाने का मन हो
जैसे बूंदों के साथ बह जाने का मन हो
बूंद हो जाने का मन हो
मन मन
मन
लेकिन बूंदो में कोई डूबता है?
न मैं बूंद होने वाला हूँ
न मैं बूंदों में डूबने वाला हूँ
बस अपनी गीली हथेली में
नए पानी की सिहरन को समेटना
उस छुवन को महसूस करना
बस इतना…
शायद काफी हो?
और शायद नहीं भी
इतने से कुछ बदल नहीं जाता
खालीपन नहीं जाता
लेकिन अगर वो बारिश की बूंदें भी हथेली पर न गिरे तो?
मैं सोचना नहीं चाहता
उतनी सी सिहरन की तलाश साल भर
खिड़कियों के पीछे जाने कितनों को ज़िंदा रखती है।