तुम्हारी हर शाम
अब अजीब सी है
आसमान के नीले क्षितिज पर
बेपरवाह बादलों की ओट से झाँकता
गोल सा सूरज
कुछ देर में
अपनी आंखे मींच लेगा
और तुम अपनी पलकें झुकाए
जमीन की तरफ देखोगे
और सोचोगे एक फिल्म के उस
चहेते गाने के बारे में —
‘धड़कन जरा रुक गई है
कहीं ज़िंदगी बह रही है’
फिर तुम सुनोगे
आस पास की गाड़ियों का शोर
तुम्हारे हर ओर
जिनसे होकर गुजरना तुम्हें बिल्कुल नहीं सुहाता
— अजीब सी बात है न
कि कभी दीवारों का सन्नाटा तुमसे उलझता है
और कभी सड़कों का शोर —
देखोगे अपने पास
रंग बिरंगे कपड़ों मे सँवरे
चहकते, इठलाते
दुनिया भर के लोग
जिनमे से कोई चेहरा कभी याद नहीं रहता
कुछ पल के लिए भी नही
बस आकार, बस आवाज़ें
और परछाइयाँ —
जो मानो साँझ की आखिरी साँसों के जैसी
बड़ी होती जाती हों,
लड़खड़ाती हों —
और फिर एकदम से आँखों से ओझल भी
जैसे किसी ने कोई दिया
फूँक मार कर बुझा दिया हो।
और एक बार फिर तुम्हारी धड़कन
जरा रुकने सी लगेगी।
तुम गुमसुम से हो, चुपचाप
रुको सुनो तो, देखो
हर फैसले का बोझ
पहाड़ सा
भारी किये जा रहा है तुम्हें
— केवल तुम्हारे ही नहीं
दूसरों के भी —
जो तुमने चाहा वो नहीं मिला,
कुछ खो सा गया,
कुछ ऐसा जो शायद था ही नहीं।
मान लिया कि कुछ
तुम्हारे हाथ से फिसल गया
शायद उसका हाथ,
बस यही?
तुम इस सृष्टि के विधाता तो नहीं
चाहना और मिलना
हितों का व्यापार,
कोई फितूर या प्यार,
यार
छोड़ो भी
चोट लगी,
टीस उसकी हल्की होगी
समय के साथ।
मन की सिलवटें
तो कितनी बार बनती हैं
मिट जाती हैं
पानी पर लकीरें हों जैसे,
छोड़ो बीती तारीखों से लड़ना,
झगड़ना — क्यूँ और कैसे
समय बंद मुट्ठी से रेत सा फिसल रहा है
जाने दो
अस्तित्व का ये रंगमंच
जो ये दिखाए, इसे दिखाने दो
लेकिन फिर तुम अंधेरे मे नहाए
क्षितिज की ओर देख कर
सोचोगे
दिल की हथेली इस साँझ एकदम खाली है
और फिर मैं कुछ नहीं कह सकूँगा।