मौसम ने करवट ली है,
दिन की तल्खी
बेबस मन को कुरेद ही रही थी,
कि तभी कल रात
बादलों के एक आवारा झुंड ने
आसमान पर टेंट गाड़े
और बस,
बरस पड़े।
नई मचलती बूंदें
किसी पहाड़ पर से
पैराशूट से कूदते
अल्हड़ सैलानियों की तरह
उछल कर कूदीं और
इस फीकी दुनिया के तमाम
मकान, इमारतें, चौराहे, स्कूल —
सबको भिगाती गईं।
उनींदी सी रात
इस शोर गुल से हैरान थी
और आखिर में
जब वो
अपनी साड़ी समेट कर
भारी आखों से उठी और
अपनी खोई हुई बालियों को
पलंग से उठ कर ढूंढ ही रही थी
कि गीली हवा ने उसे बाहों में लिया
उसकी लटों को सहलाया
और कहा —
‘यही कहीं होगी। शायद रौशनी मे मिल जाए’
सुबह होने को है
नीली रौशनी
पेड़ों की डालियों से झाँकती है
पत्तों को सहलाती है,
समय ठहरा हुआ है
पार्क की एक ठंडी बेंच पर
थोड़ी देर के लिए
जैसे किसी से मिलने को शायद,
और मैं भी।
बताना
तुम्हारा मन भीगा कि नहीं ?
जो भी हो
बिना भीगे इन बादलों को जाने मत देना
बादलों की क्या खबर
वो तब आते हैं जब उनका मन होता है।