नवंबर। बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के कोने का एक कमरा। नीचे से आती टूटी बिखरी आवाज़ें कुछ लोगों की। और अब निस्तब्धता। कुछ लिखा जा सकता है। कुछ बेहतरीन, या फिर कम से कम कुछ अच्छा। मेरे कंप्यूटर की दूधिया रौशनी बिखेरती स्क्रीन, जिस पर मेरी आँखें सरक रही हैं, आतुर है भरने को, मानो पन्ने के ख़ालीपन के भर जाने से शायद मेरी भीतर का ख़ालीपन भी भर जाए। ये सच भी है। मैंने इस तरह कितनी बार ख़ुद को भरा है (या फिर ख़ाली किया है?)।लेकिन फिर किसी कच्चे घड़े की तरह सृजन की आंतरिक अनुभूति मेरे भीतर से रिस जाती है और मैं फिर रिक्त हो जाता हूँ। और चाह फिर उसी की है, स्वयं को व्यक्त कर लेने की। लेकिन कोई सीढ़ी तो है नहीं, कि चेतना के उस तल पर कोई झटपट चढ़ जाए और कल जैसा लिखा था, उसी स्तर का कुछ लिख सके। कुछ भी नया लिखना, नई लकीरों से नए आकार बनाना, खड़ी दीवार पर चलने जैसा है।और फिर कितना समय बीत जाता है, फिर उसी चेतना के तल तक पहुँचने में। इंग्लिश में इसे ही ‘हाई’ कहते हैं। मैंने अपने आस पास के कुछ लोगों को ‘हाई’ होने के अन्य रास्ते अपनाते देखा है। ऑटो वाले, सब्ज़ी वाले, रैपिडो वाले, पानवाले, कबाड़ी वाले, दफ़्तर के बाबू लोग, मित्र, सहेलियाँ। एल्कोहल से लेकर निकोटीन, और कुछ का तो सीधे नसों में रसायनों का संचार। किसी तरह अपनी चेतना के सारे दरवाज़े बंद करने के यत्न। किसी प्रकार अपने ही जीवन को भुलाने का प्रयास। मेरे लिए सबसे कौतूहल का विषय ये है कि स्वयं को विस्मृत करने के ये सब तरीक़े मित्रों, परिचितों, और सहकर्मियों के बीच आनंद मार्ग की तरह बखाने जाते हैं जैसे कोई बहुत अद्भुत घटना घट रही हो, या घटने वाली हो। यहाँ मेरा भाव निंदा का नहीं है, कौतूहल का है — मेरे संपर्क में आए हुए लोगों को जानने से मुझे यही पता चला (और ये कोई जेनरेलाइज़ेशन नहीं है) कि उनके जीवन का विषाद इतना गहरा गया है, कि कोई और तरीक़ा नहीं है उससे निजात पाने का, या कम से कम उन्हें नहीं पता है। तो वे उसे भुलाने में लगे हैं। ऐसे लोगों से मिल के सहानुभूति होती है, लेकिन मेरी सहानुभूति मुझे हर बार भारी पड़ी है (इस विषय पर फिर कभी)।
खैर, मेरे लिए मेरी चेतना को विस्मृत कर देना कोई विकल्प नहीं है। अगर वो चौबीस घंटे भी शोर करे तो भी। अगर वो कचोटे, खींचे, दबाए, सताए, चिढ़ाये, उलझे, नोचे, उमेठे, खरोंचे, पकड़े, घसीटे, तो भी। क्यूंकि वही चेतना मुझसे सृजन भी करवाती है; वही चेतना मुझे उठाती और गिराती भी है। उसी चेतना से चलित मेरी अस्मिता (और अहंकार) है। फिर उसमे चुनाव कैसा। मुझे कभी कहीं किसी बाहरी अनुभव में उतनी आत्मीयता की अनुभूति नहीं हुई, जितनी कभी कभी (और कभी कभी ही) पूर्ण एकांत में मेरे भीतर चेतना के प्रवाह में हुई है। लेकिन चेतना का प्रवाह ‘ऑन डिमांड’ नहीं होता। मैं दिन भर प्रतीक्षा करता हूँ किसी अनुभव का, किसी आवेग का, किसी पंक्ति का, किसी भाव का, किसी स्मृति का जिसे मैं शायद सृजन के क्षण में किसी रचना में उँडेल सकूँ और वो मेरे लिए एक दर्पण की तरह मुझसे मेरा ही साक्षात्कार करवा दे। मेरे ‘ड्राफ्ट’ फोल्डर में दर्जनों ड्राफ्ट और उनमें लिखी आधी अधूरी पंक्तियां किसी सरकारी अस्पताल के मरीजों की तरह अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं। केवल अनुमान में, प्रतीक्षा में, झुंझलाहट में। लिखना अधीर लोगों का काम नहीं, ये मैंने स्वयं से कई बार कहा है। और प्रतीक्षा मैं आजन्म कर सकता हूँ। क्या कोई अदृश्य पन्ने पर उतरकर दृश्य होना चाहता है? क्या उसकी आहट मैं सुन पा रहा हूँ?


