सलेटी बादल बरसते, नीले अम्बर के तले
बूँदों के नर्म मोती, टूटे बिखरे फिर मिले
सांझ करवट ले रही, चुपचाप देखे ये जहाँ
बारीशों की बदलियों मे खो गया खुद आसमा ..
खोजने निकलीं उसे जब लड़खड़ातीं सोचतीं,
खुद ही खो जातीं कहीं सांझ की परछाईयाँ।
कश्तियों का किनारा दूर था झिलमिल कहीं,
लहरो की थपकियों में सो गया साहिल कहीं.
मंज़िलों तक पहुँचने की चाह पागल ही सही,
जीत की जयकर ना तो हार घायल ही सही.
आगाज़ से अंजाम तक चल पड़ा जो सिलसिला..
रात से लमहे चुरातीं, सांझ की परछाईयाँ।
फिर उठी उम्मीद की, बाती की सुलगने की अगन,
बुझी तो क्या, फिर से अब तो जलने मे मगन.
हवाओं से लड़ के हारी, फिर से लड़ने को चली,
अंधेरे को देती चुनौती, अंधेरे मे ही पली.
दिये बाती और हवा का ये पुराना खेल है ..
उनींदी सी बड़बड़ाती सांझ की परछाईयाँ।
बंद गलियों के मुसाफिर थक ही जाते हैं कभी
गुमशुदा हैं मजिलें जो यही तो थीं अभी.
हाथ थामे जो किसी का चले थे उस गली
साथ छूटे, शब्द बिखरे धड़कनें सोई मिलीं !
गहराईयों मे चीखतीं साँसों की मद्धिम सिसकियाँ
गोद मे उनको सुलातीं सांझ की परछाईयाँ।
सुनहरे सपनों पे पलते मन की उड़ती पतंग
झूमते हैं रंग सारे, थिरकती है ये उमंग
अंतहीन अरमान इतने, उतनी ही ये उलझनें,
सवालों का ये बवंडर सबके ही तो सामने
पा के सब कुछ खो ही देना है तो फिर कैसी लगन?
अंधेरों मे मुँह चिढ़ाती सांझ की परछाईयाँ।
चल पड़े इस राह पे तो एक साथी भी तो हो,
सपने गाते, गीत कहते, एक हमराही तो हो
मीत की आँखों मे पलते नेह के धागे कई
धरती अंबर बीच खिंचती सजल रेखाएँ नयी
आँखों से ओझल, दूर जातीं बोझिल थकी पराजित ..
एक दूजे मे समातीं सांझ की परछाईयाँ।