कभी कभी अंधेरे कमरे में
मैं जानबूझ कर रोशनी नहीं करता
और यूं ही बैठा रहता हूँ।
अंधेरा जितना गहरा होता है,
आँखों के सामने
तस्वीरें उतनी ही बेहतर उभरती हैं।
धुंधले पड़ते पुराने चेहरे,
बातों के कुछ टुकड़े,
शोर और धड़कनें।
पीछे छूट रही एक ज़िंदगी।
तेज हवा में किसी खुली किताब
के फड़फड़ाते पन्नों की तरह
ज़िंदगी का कोई भी पन्ना
बेतरतीबी से खुल जाता है।
और मैं अतीत की उस खिड़की में
झाँकने लगता हूँ,
और गुम हो जाता हूँ।
खिड़की के उस पार के चेहरे
मेरी तरफ देखते नहीं,
वो बस मशगूल हैं
अपनी ज़िंदगी में,
अपने वक़्त को जीते हुए।
मैं उन्हे देखता हूँ बार बार,
शायद कोई नजर मिलाए,
शायद कोई मुझे देख कर मुस्कुराए
एक दो बार तो ऐसा हुआ भी
या फिर मैंने ही
ख्वाब सा कुछ बुन लिया होगा।
पता नहीं।
खिड़की के उस पार मैं भी तो हूँ
हर फ्रेम में।
लेकिन जब मैं खुद को देखता हूँ
तो ऐसा लगता है
जैसा वो कोई और हो,
बहुत दूर
वो मैं नहीं !
हालांकि जानता हूँ कि वो शख्स मैं ही हूँ
कोई और नहीं।
फिर मुझे ये ख्याल आता है
कि अभी कितना कुछ बाकी है
उसकी ज़िंदगी मे होने को,
उम्र के साल खोने को।
कितनी गलियों और चौराहों से मुड़कर
उसे आना तो मुझ तक ही है,
और तब मैं उसे ज़रूर पहचान सकूँगा।
पीछे मुड़ कर देखते रहने की आदत क्यों है?
पता नहीं।
क्या कुछ अधूरा रह गया है?
क्या कुछ पीछे छूट गया है?
पता नहीं।
क्या उन खिड़कियों के पार जाकर दोबारा जीने की हसरत है?
नहीं।
फिर अपने ही जिए लम्हों को
किस लिए याद करना?
शायद इसलिए कि उन
शोर, खामोशी, और आहटों मे
मैं ही हूँ,
मेरा ही एक हिस्सा है,
जो मुझे बुलाता है,
और मैं उस हिस्से को
सहलाना चाहता हूँ,
क्योंकि वो भी शायद अकेला हो।
शायद इसलिए भी कि
खिड़की के उस पार जो लोग है
वो इस पार नहीं।
उनसे कुछ कहना था
लेकिन कहा नहीं,
और वो टीस आँखें बंद करते ही
उभार देती है उन चेहरों को।
और शायद इसलिए कि
हाथों से तेजी से फिसलते साल,
बदलती जगहें,
सतही लोग, और
अर्थहीन बातें,
इन सबके बीच कोई और ठिकाना नहीं है
मेरे पास सुकून का।