वो कौन है
जो
देखता है सतत
दृश्यों के बदलने,
और
कामना के चपल कदमों के
नियति के पथरीले पथ पर
जरा रुकने, और संभलने को,
और देखता है
चेतना की झील पर
वर्षों की झिलमिलाती
तैरती स्मृतियाँ,
कौतुहल से या अचेतन भाव से भी?
वो कौन है
जो देखता है
सूने से अनमने नयनों
को होते
चपल शरीरों पर अनुरक्त
मोहित, तब
जब वो जानते हैं कि
समीकरणों के सहारे
हस्तांतरित होते हैं
प्रेम भी और स्नेह भी ?
(कैसे!)
वर्ष ढलने,
हाथ मलने,
संतप्त से, अभिशप्त से,
उम्र भर की उम्मीदों को समेटे
टकटकी बाँधे
इन लोचनों में रश्मियों के
अनगिनत आभास मद्धिम।
इस निविड़ अंधियार में
अब भी ये बेचैन हैं तो
बेचैन होकर
ये उपहास के ही पात्र हैं।
वो कौन है
जो खड़ा
स्याह होती साँझ में
चित्रवत
जो चाहता है
चाहता है
चाहता है
मित्रता
करुणा और तृप्ति और प्रेम
जो आतुर है
तिरोहित करने को अहंकार
इस विश्वास से कि
संशोधनों में तलाशे कोई नई किरण
और मुक्ति दे सड़ चुकी इस टीस से?
शायद वो मैं नहीं
वो मैं नहीं
सत्य
मेरा सत्य
भाव
मेरे भाव
मेरी पंक्तियों का सामयिक गठजोड़ हैं,
और कुछ भी नहीं।
अर्थ देना अर्थ देना
— माँग फिर से एक नई विक्षिप्तता?
साँझ की अंतिम घड़ी में
लो स्वीकार मेरा —
चित्त वंचित व्यथित आकुल ही रहे
तो ही सही!
वो कौन है जो
देखता है
प्रश्नवाचक सा यूँ गगन में ?


